Monday, December 1, 2014

611. In a Relationships Love and Anger are two Sides of a Coin!!!!!

http://www.speakingtree.in/public/spiritual-blogs/seekers/self-improvement/in-relationships-love-and-anger-are-two-sides-of-a-coin



In every persons life there are two sets of relationships; one is concerned and the other is unconcerned. This concerned relationship includes our family members, close friends, our co-employees etc with whom we have concern. The unconcerned lot is those whom we get to know while travel in say a bus or train, our far relatives etc.., with whom we may not have too much concern.    

Suppose a person in my unconcern list does some mistake I may sometimes tell him or in most cases ignore to correct him feeling it is none of my concern. If we look into our concern people list we have included only whom we love the most. The people in this list are so much concern to us that we would want to correct them if and when they make a mistake, and it is human nature to correct people by displaying a bit of anger.     

A bit of anger is acceptable when in love and it is permitted when concerned. We can afford anger, as anger is part of love. Once we understand that we are no more concern to a person, being angry is pointless and just meaningless. A parent vents anger on the mistakes of their child as they are concern with the future of the child. A husband or wife shows if not anger, disagreement since both are concern with each other. A concerned person is not worried of the mistakes done by his concern lot, but shows intent to correct them. He gives unbiased opinion to them; his interest is not in the fall but in the raise of the concern lot. The more we are concern the more we would like to correct and more we show anger on the mistake done and hence it shows we love them more. 

Real love is when we are selfless and more concerned about the concern lot and become a giver instead of a taker. If people cannot understanding that your anger is due to the concern you have on them, then put them on to the unconcern list and move on. Your love and anger is more precious to the concern lot..... What say? 

1 comment:

  1. विहंगम मार्ग

    विहंग का अर्थ होता है पक्षी । जिस प्रकार पक्षी उड़कर द्रुत गति से कोई भी दूरी पार कर लेता है, उसी प्रकार इस मार्ग पर चलकर अति शीघ्र परब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सकता है। यह अत्यन्त सरल व सीधा मार्ग है । इसे विहंगम योग, परमयोग या प्रेम लक्षणा भक्ति भी कहते हैं ।

    श्री प्राणनाथ जी का कथन है-

    कई दरवाजे खोजे कबीरें , बैकुण्ठ सुन्य सब देख्या ।

    आखिर जाए के प्रेम पुकारया , तब जाए पाया अलेखा ।। ( श्री मुख वाणी- कि. ३२/१० )

    कबीर जी ने ब्रह्म प्राप्ति के लिए अनेक मार्गों को अपनाया । उन्होंने वैकुण्ठ-शून्य सबकी अनुभूति की । अन्त में जब प्रेम की सच्ची राह पकड़ी , तब उन्हें उस अलख अगोचर ब्रह्म की प्राप्ति हुई ।

    अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए हमें शरीर, मन, बुद्धि आदि के धरातल पर होने वाली उपासना पद्धतियों को छोड़कर श्री प्राणनाथ जी की तारतम वाणी के आधार पर उस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ेगा, जिसके विषय में गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्तु अनन्यया' अर्थात् वह परब्रह्म अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा प्राप्त होता है, जो नवधा आदि सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों से भिन्न है। अखण्ड मुक्ति की प्राप्ति भी इसी अनन्य प्रेम द्वारा होती है ।

    श्री मुख वाणी का कथन है-

    यामें प्रेम लछन एक पारब्रह्म सों , एक गोपियों ए रस पाया ।

    तब भवसागर भया गौपद बछ , विहंगम पैंडा बताया ।। ( श्री मुख वाणी- कि. ३२/९ )

    प्राणवल्लभ अक्षरातीत की अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति का रसमयी मार्ग केवल गोपियों ने ही पाया , जिससे उनके लिए यह अथाह भवसागर गाय के बछड़े के खुर से बने हुए गड्ढे की तरह छोटा हो गया । तब उन्होंने बड़ी सरलता से इसे वैसे ही पार कर लिया जैसे कोई पक्षी एक ही उड़ान में अपनी मंजिल तक पहुँच जाता है ।

    श्री प्राणनाथ जी द्वारा दिये गये ब्रह्मज्ञान तारतम से ही इस मार्ग का पता चल सका है । इस मार्ग पर चलने के लिए तीन बातों की आवश्यकता है- तारतम ज्ञान , परब्रह्म के प्रति अटूट निष्ठा (ईमान) व प्रेम । तारतम ज्ञान (श्रीमुख वाणी) का बोध हुए बिना न तो क्षर, अक्षर व अक्षरातीत के सभी रहस्यों का पता चल सकता है , न ही दृढ़ निष्ठा जागृत हो सकती है ।

    परब्रह्म के प्रति पूर्ण समर्पण व विरह आने से ही प्रेम की उत्पत्ति सम्भव है । श्री मुख वाणी में चार तरह के प्रेम का वर्णन है, जिसमें तृतीय अवस्था में ही अक्षरातीत परब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है तथा चौथी में उनसे एकस्वरूपता हो जाती है । चितवनि के मार्ग का अनुसरण किए बिना प्रेम की यह उच्च अवस्था नहीं प्राप्त की जा सकती।

    श्री प्राणनाथ जी ने कहा है-

    आतम सों न्यारे न कीजे , आतम बिन काहू न कहीजे ।

    फेर फेर कीजे दरसन , आतम से न्यारे न कीजे अधखिन ।। ( श्री मुख वाणी- परि. ३/१७६ )

    अर्थात् अक्षरातीत की जिस शोभा का दर्शन हो रहा है, उसे आधे क्षण के लिए भी अपनी आत्मा के चक्षुओं से अलग नही करें । अक्षरातीत के सुन्दर स्वरूप को दिल में बसाना एवं आत्म-चक्षुओं से देखना ही चितवनि है । इसी से आत्मा के हृदय में प्रेम का रस फूटता है तथा अखण्ड आनन्द की प्राप्ति होती है ।



    Read more: http://spjin.org/bird_theory_hi.htm#.WD44_XPhXqA#ixzz4RSHy1PVU

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